Sunday, December 13, 2009

यमुना ने सरस्वती को निगला तब कार्बन उत्सर्जन कहाँ था !

ज्ञात मानव इतिहास में धरती पर पहला बड़ा जल प्लावन ईसा से लगभग 3102 साल पहले आया। जब जल प्रलय समाप्त हो गया तब सरस्वती की दिशा उलट गई। अर्थात् इस नदी की मुख्य धारा अपने पहले के बहाव क्षेत्र में बहने के स्थान पर दिल्ली से कुछ ऊपर एक छोटी पहाड़ी नदी की तेज धारा में मिलकर दक्षिण-पूर्व की ओर बहने लगी और विशाल यमुना का जन्म हुआ। चूंकि उसने सरस्वती का पानी निगल लिया था इसलिये वह सरस्वती को मृत्यु देने वाली यमुना अर्थात् यम की बहिन कहलाई। गंगा और यमुना जहाँ प्रयाग में मिलती हैं, उस स्थल को देखकर अनुमान होता है कि इनमें से यमुना बड़ी नदी है किंतु आज वास्तविक स्थिति यह है कि गंगा, यमुना से बड़ी है।
पुराणों में वर्णित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगस्त्य और वसिष्ठ ऋषियों के समय तक अर्थात् 2350 ई. पूर्व तक सरस्वती की पुरानी धारा में कुछ जल बहता था जो विनाशन नामक स्थान तक आकर लुप्त होता था। सरस्वती की मुख्य धारा के यमुना में मिल जाने से सरस्वती के पुराने तटों पर बसी हुई मानव बस्तियां उजड़ गईं जिनमें कालीबंगा, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो आदि के नाम लिये जा सकते हैं। सरस्वती के तट पर बने ऋषियों के आश्रम उजड़ गये। अधिकांश ऋषि भयानक सूखे, अकाल और अनावृष्टि के कारण मर गये।
इस घटना के लगभग एक सौ साल बाद सप्त-ऋषियों के काल में सरस्वती का पुराना स्वर्णकाल लौटा पर वह सरस्वती तट तक सीमित नहीं था, उसका प्रभाव सारे उत्तारी भारत में था। यह स्थिति पाँच सौ साल तक चली। इसमें उत्तारी भारत के लोगों को शुध्द जल की आपूर्ति प्रचुर मात्रा में हुई। कालीबंगा जैसी पुरानी बस्तियों पर फिर से नई बस्तियां बस गईं। आज भी कालीबंगा की खुदाई में मानव बस्तियों के दो स्तर ठीक एक दूसरे के ऊपर मिलते हैं।
1800 ई. पूर्व के आसपास एक बार फिर उत्तारी भारत में नदियों ने अपना रूप बदला। सरस्वती फिर सूखने लगी। इस कारण उसके तटों पर खड़े जंगल सूख गये। इस काल का हमारे पुराणों में विशद वर्णन उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि सरस्वती के तट पर ऋषि भूखों मरने लगे तथा अधिकांश ऋषि सरस्वती का तट छोड़कर गंगा-यमुना के मध्य क्षेत्र में जा बसे। इस काल में पूरे उत्तारी भारत में भयानक अकाल पड़ा। इसी काल के एक उपनिषद में वर्णन आता है कि भूख से बिलबिलाते हुए एक ऋषि ने एक महावत से साबुत उड़द मांगकर खाये।
वामन पुराण में लिखा है कि ब्रह्मावर्त (आज का हरियाणा और उत्तारी राजस्थान) में सरस्वती के किनारे बड़ी संख्या में ऋषियों के आश्रम स्थित थे। अत्यंत दीर्घजीवी मार्कण्डेय ऋषि सरस्वती के उद्गम के पास रहते थे। जब प्रलय आया तो मार्कण्डेय ऋषि अपने स्थान से उठकर चल दिये। सरस्वती नदी उनके पीछे-पीछे चली। इसी कारण सरस्वती की ऊपरी धारा का नाम मारकण्डा पड़ गया। इस रूपक से आशय लगाया जा सकता है कि जब सरस्वती की मुख्य धारा सूखने लगी तो मार्कण्डेय ऋषि ने अपने पूर्व स्थान को त्याग दिया तथा सरस्वती की जिस धारा के तट पर जाकर वे रहे, वह धारा ऋषि के नाम पर मारकण्डा के नाम से जानी गई। हिमालय पर्वत पर 3207 फुट की ऊँचाई पर नाहन की चोटी है जिस पर स्थित मारकण्डा नदी का चौड़ा पाट बताता है कि किसी समय यह नदी एक विशाल नद के रूप में प्रवाहित होती थी तथा सरस्वती इसकी सहायक नदी थी। इस सरस्वती को प्राचीन सरस्वती की ही एक धारा समझना चाहिये। सरस्वती के इतने सारे मार्ग परिवर्तनों के समय कार्बन उत्सर्जन जैसी कोई चीज नहीं थी। फिर भी वह लुप्त हो गई।

No comments:

Post a Comment