Friday, December 25, 2009

अब भी सच नहीं बोल रहे हुसैन !

कोपेनहेगन सम्मेलन से लौटकर अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ने इसके सफल होने की घोषणा की थी किंतु केवल 6 दिन बाद ही हुसैन ने अपना बयान बदलते हुए कहा है कि कोपेनहेगन के नतीजे पर पूरी दुनिया में चिंता होना वाजिब है। अचानक ऐसा क्या हुआ जो दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी की अन्तरात्मा हिलती हुई दिखाई दे रही है। वे कह रहे हैं कि वैज्ञानिक तथ्य हमसे इस बात की मांग करते हैं कि हम अगले 40 वर्षों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सजर्न में महत्वपूण्र कटौती करें। वे ये भी कह रहे हैं कि सभी देश जलवायु परिवर्तन की समस्या से निबटने के इच्छुक हैं।
देखा जाये तो हुसैन अब भी सच नहीं बोल रहे हैं, वे अपने आप को सच बोलते हुए दिखाने का भ्रम फैला रहे हैं। वस्तुत: कोपेनहेगन की विफलता की कहानी आज से नहीं, द्वितीय विश्वयुध्द के बाद से आरंभ हो जाती है। आज तो केवल उसके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। द्वितीय विश्वयुध्द के परिणामों ने दुनिया पर दादागिरी करने का लाइसेंस यूरोप से छीनकर अमरीका के हाथों में दे दिया था। तब से ही अमरीका अपने पूंजीवादी उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये पूरी दुनिया का शोषण करने के लिये निकल पड़ा था। तब केवल सोवियत संघ ही एक मात्र ऐसा देश था जिसने अमरीका को चुनौती देते हुए उसका मार्ग रोका था। इसी कारण विश्व शक्तियों के मध्य शीतयुध्द आरंभ हुआ और अमरीका तथा रूस में भारी मात्रा में खतरनाक हथियार बनाने की होड़ आरंभ हुई। अंतत: भारत, चीन तथा फ्रांस जैसे देशों को भी इस होड़ में शामिल होना पड़ा
इतना ही नहीं, इन हथियारों को बनाने के लिये पूरी दुनिया को अधिक से अधिक पूंजी की आवश्यकता अनुभव हुई जिससे पूरी दुनिया को औद्योगिकीकरण, मुक्त व्यापार और उदारीकरण की तरफ जाना पड़ा। विश्वव्यापी औद्योगिकीकरण के चलते भारत और चीन जैसे देशों में सदियों से चल रहे ग्रामीण और कुटीर उद्योग बंद हो गये। लोगों को अपने गांव छोड़कर कारखानों में काम करने के लिये शहरों की ओर भागना पड़ा जिससे शहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। शहरीकरण से बाजारीकरण को तेजी से बढ़ावा मिला। बाजार की मांग को पूरा करने के लिये और अधिक संख्या में कारखाने लगे, बिजली की मांग बढ़ी, वातानुकूलित जीवन शैली का विकास हुआ और पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया।
1945 से लेकर 2008 तक तो अमरीका ने इन स्थितियों का लाभ उठाया किंतु 2009 में पूंजीवाद का जनाजा निकलने लगा, ठीक वैसे ही, जैसे कि कुछ दशक पहले साम्यवाद का जनाजा उठा था। देखते ही देखते अमरीका और यूरोप महामंदी की सुनामी से घिर गये। सैंकड़ों अमरीकी और यूरोपीय बैंक बरबाद हो गये। अब अमरीका चाहता है कि भारत और चीन जैसे बड़े देश औद्योगिक उत्पादन न बढ़ायें ताकि अमरीकी और यूरोपीय कारखानों में बने हुए माल को इन देशों में बेचा जा सके। यही कारण है कि कोपेनहेगन सम्मेलन से ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति हुसैन ने भारत के प्रधानमंत्री को अमरीका आने का न्यौता दिया और स्वयं चीन की राजधानी बीजिंग में जाकर हाजिरी भर आये।
भारत और चीन ने हुसैन की मुसीबत को समझते हुए, कोपेनहेगन में अमरीका की नाक कटने से बचाने का प्रयास किया। यही कारण था कि कोपेनहेगन में हुसैन केवल भारत और चीन के साथ ही एक धुंधली सी अबाध्यकारी संधि करने में सफल हुए जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि अब ओबामा फिर से कोपेनहेगन का पिटारा खोलकर बैठ गये हैं। इसी को कहते हैं- भई गति सांप छछूंदर केरी।' हुसैन न तो पूंजीवाद के संड़ांध मारते शव की अंत्येष्टि कर सकते हैं और न ऐसा किये बिना ग्रीन हाउस गैसों के ऊत्सर्जन पर रोक लग सकती है। यही कारण है कि वे सच न बोलकर सच बोलने का दिखावा कर रहे हैं। वे जो कुछ भी कह रहे हैं, उसका केवल यही अर्थ है कि भारत और चीन अपने कारखाने बंद करके अमरीकी कारखानों में बना हुआ माल खरीदने की संधि कर ले। - डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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