Wednesday, December 30, 2009
ऐसे तो कोपेनहेगन नो–पेनहेगन से फ्लॉपेनहेगन हो जायेगा !
आज पूरी दुनिया में भारत से मोटे तौर पर तीन तरह के पत्थरों का निर्यात होता है– संगमरमर, ग्रेनाइट तथा सैण्ड स्टोन। इनमें से संगमरमर और ग्रेनाइट महंगे पत्थर हैं तथा प्रसंस्करण के बाद ही काम आते हैं जबकि सैण्ड स्टोन एक सस्ता पत्थर है और बिना प्रसंस्करण के ही भवन निर्माण जैसे कार्यों में लगता है।
विगत दिनों अमरीकी राष्ट्रपति अपनी चीन यात्रा में इस बात के संकेत दे चुके हैं कि वे चीन के साथ नये व्यापारिक सम्बन्ध बनायेंगे और ऐसा करने के लिये वे चीन को एशियाई देशों का नेतृत्व सौंपने में भी नहीं हिकिचायेंगे। इसलिये समझा जा सकता है कि विगत आधी शताब्दी से भारत से आयात किये जा रहे सैण्ड स्टोन को अब अमरीका यह कहकर खरीदने से क्यों मना कर रहा है कि भारतीय खदानों में बाल श्रमिक इस पत्थर को खोदते हैं ! जबकि पर्दे के पीछे की सच्चाई यह है कि इससे चीनी हित जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। चीन विगत आधी शताब्दी से भारत से संगमरमर और ग्रेनाइट से बनी सामग्री खरीदता था। विगत एक दशक में चीन ने भारत से तैयार सामग्री खरीदना बंद करके संगमरमर तथा ग्रेनाइट के ब्लॉक खरीदने आरंभ कर दिये।
चीन पत्थर के इन ब्लॉक्स का दो तरह से उपयोग करता है। पहला उपयोग तो यह कि चीन उनसे विभिन्न प्रकार की सामग्री तैयार करके अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात करता है जिससे उसके श्रमिकों को रोजगार और देश को अधिक वैदेशिक मुद्रा मिल सके। चीन इस पत्थर का दूसरा उपयोग इसे सीधे ही दुनिया के दूसरे देशों को बेच कर मुनाफा वसूलने में करता है। अमरीका और उसके मित्रों द्वारा चीन को प्रश्रय दिये जाने के कारण भारतीय पत्थर व्यवसायी एवं निर्यातक दुनिया के बाजारों में पिट रहे हैं और चीन उस पत्थर से करोड़ों डॉलर कमा रहा है।
इस प्रकार चीन पहले ही भारत के ग्रेनाइट और संगमरमर से तैयार चीजें खरीदना बंद करके भारतीय श्रमिकों को बेरोजगारी की ओर धकेल चुका है और अब अमरीका भी भारत से सैण्ड स्टोन खरीदना बंद करके इस प्रक्रिया को बढ़ावा देगा। अकेले राजस्थान में सैण्ड स्टोन के खनन, परिवहन एवं निर्यात व्यवसाय से जुड़े दो लाख लोग बेरोजगार हो जायेंगे। अमरीका और चीन यदि वास्तव में धरती के बुखार को उतारने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें दो काम करने होंगे। चीन भारत से ग्रेनाइट और संगमरमर के ब्लॉक्स खरीदने की बजाय तैयार माल खरीदने की नीति अपाये तथा अमरीका भारत से सैण्ड स्टोन खरीदने पर प्रतिबंध न लगाये। अन्यथा भारतीय पत्थर उद्योग में लगे श्रमिक, व्यवसायी एवं अन्य लोग नि:संदेह ऐसे कामों की तरफ जायेंगे जिनके कारण को–पेनहेगन को नो–पेन हेगन या फ्लोप–एन हेगन बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
Friday, December 25, 2009
अब भी सच नहीं बोल रहे हुसैन !
देखा जाये तो हुसैन अब भी सच नहीं बोल रहे हैं, वे अपने आप को सच बोलते हुए दिखाने का भ्रम फैला रहे हैं। वस्तुत: कोपेनहेगन की विफलता की कहानी आज से नहीं, द्वितीय विश्वयुध्द के बाद से आरंभ हो जाती है। आज तो केवल उसके परिणाम दिखाई दे रहे हैं। द्वितीय विश्वयुध्द के परिणामों ने दुनिया पर दादागिरी करने का लाइसेंस यूरोप से छीनकर अमरीका के हाथों में दे दिया था। तब से ही अमरीका अपने पूंजीवादी उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिये पूरी दुनिया का शोषण करने के लिये निकल पड़ा था। तब केवल सोवियत संघ ही एक मात्र ऐसा देश था जिसने अमरीका को चुनौती देते हुए उसका मार्ग रोका था। इसी कारण विश्व शक्तियों के मध्य शीतयुध्द आरंभ हुआ और अमरीका तथा रूस में भारी मात्रा में खतरनाक हथियार बनाने की होड़ आरंभ हुई। अंतत: भारत, चीन तथा फ्रांस जैसे देशों को भी इस होड़ में शामिल होना पड़ा
इतना ही नहीं, इन हथियारों को बनाने के लिये पूरी दुनिया को अधिक से अधिक पूंजी की आवश्यकता अनुभव हुई जिससे पूरी दुनिया को औद्योगिकीकरण, मुक्त व्यापार और उदारीकरण की तरफ जाना पड़ा। विश्वव्यापी औद्योगिकीकरण के चलते भारत और चीन जैसे देशों में सदियों से चल रहे ग्रामीण और कुटीर उद्योग बंद हो गये। लोगों को अपने गांव छोड़कर कारखानों में काम करने के लिये शहरों की ओर भागना पड़ा जिससे शहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। शहरीकरण से बाजारीकरण को तेजी से बढ़ावा मिला। बाजार की मांग को पूरा करने के लिये और अधिक संख्या में कारखाने लगे, बिजली की मांग बढ़ी, वातानुकूलित जीवन शैली का विकास हुआ और पूंजीवाद अपने चरम पर पहुंच गया।
1945 से लेकर 2008 तक तो अमरीका ने इन स्थितियों का लाभ उठाया किंतु 2009 में पूंजीवाद का जनाजा निकलने लगा, ठीक वैसे ही, जैसे कि कुछ दशक पहले साम्यवाद का जनाजा उठा था। देखते ही देखते अमरीका और यूरोप महामंदी की सुनामी से घिर गये। सैंकड़ों अमरीकी और यूरोपीय बैंक बरबाद हो गये। अब अमरीका चाहता है कि भारत और चीन जैसे बड़े देश औद्योगिक उत्पादन न बढ़ायें ताकि अमरीकी और यूरोपीय कारखानों में बने हुए माल को इन देशों में बेचा जा सके। यही कारण है कि कोपेनहेगन सम्मेलन से ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति हुसैन ने भारत के प्रधानमंत्री को अमरीका आने का न्यौता दिया और स्वयं चीन की राजधानी बीजिंग में जाकर हाजिरी भर आये।
भारत और चीन ने हुसैन की मुसीबत को समझते हुए, कोपेनहेगन में अमरीका की नाक कटने से बचाने का प्रयास किया। यही कारण था कि कोपेनहेगन में हुसैन केवल भारत और चीन के साथ ही एक धुंधली सी अबाध्यकारी संधि करने में सफल हुए जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि अब ओबामा फिर से कोपेनहेगन का पिटारा खोलकर बैठ गये हैं। इसी को कहते हैं- भई गति सांप छछूंदर केरी।' हुसैन न तो पूंजीवाद के संड़ांध मारते शव की अंत्येष्टि कर सकते हैं और न ऐसा किये बिना ग्रीन हाउस गैसों के ऊत्सर्जन पर रोक लग सकती है। यही कारण है कि वे सच न बोलकर सच बोलने का दिखावा कर रहे हैं। वे जो कुछ भी कह रहे हैं, उसका केवल यही अर्थ है कि भारत और चीन अपने कारखाने बंद करके अमरीकी कारखानों में बना हुआ माल खरीदने की संधि कर ले। - डॉ. मोहनलाल गुप्ता
Sunday, December 13, 2009
मायावी असुरों की भूमिका में हैं धनी देश !
मायावी असुरों और सरल-चित्त सुरों के मध्य समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्ति के लिये किया गया था किंतु दोनों ही पक्ष इस बात से अनजान थे कि अमृत के साथ-साथ इसमें से देवी लक्ष्मी, धनवन्तरि, चंद्रमा, कौस्तुभ, उच्चैश्रवा:, कामधेनु एवं ऐरावत जैसी सम्पदायें और विष एवं वारुणि जैसी विपदायें भी निकलेंगी और इन्हें कौन लेगा! जबकि कोपेनहेगन में में तो झगड़ा ही इस बात पर होना है कि ईंधन चालित मशीनों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन रूपी विष को कौन पियेगा! धनी देश चाहते हैं कि उनके द्वारा निकाले गये विष को विकासशील देश पी लें।
जब ईंधन से चलने वाली मशीनें काम करती हैं तो विकास का पहिया आगे बढ़ता है तथा अपने पीछे कार्बन डॉई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन जैसे विषैले उत्सर्जन छोड़ जाता है। इन गैसों से धरती का वातावरण गरम होता है जिससे ग्लेशियरों और ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तथा समुद्रों का जलस्तर बढ़ता है। परिणामत: किनारों पर बसे देश पानी में डूब जाते हैं। पिछले दिनों मालदीव अपने मंत्रिमण्डल की बैठक समुद्र में करके तथा नेपाल अपने देश की बैठक एवरेस्ट के बेस कैम्प में करके संसार को इस बात की चेतावनी दे चुके हैं कि यदि धरती का तापक्रम इसी तरह बढ़ता रहा तो आने वाला भविष्य कैसा होगा!
इतिहास गवाह है कि जब से मनुष्य ने ईंधन चालित मशीनों का निर्माण किया है, तब से यूरोप और अमरीका ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। यही कारण है कि आज यूरोप और अमरीका जगमगाती बिजलियों, सरपट दौड़ती सड़कों, लम्बे पुलों और ऊँची भव्य मीनारों से सजे हुए हैं। इसके विपरीत पिछड़े हुए अर्थात् विकासशील देशों में टूटी फूटी सड़कों, अंधकार में बिलखते शहरों और गरीबी में सिसकते गांवों की उपस्थिति केवल इसलिये है क्योंकि वे र्इंधन चालित मशीनों का उपयोग प्रभूत मात्रा में नहीं कर पाये।
आज विकसित देश अपनी समृध्दि के चरम पर हैं। उन्हें लगता है कि यदि विकासशील देशों ने उनकी बराबरी की तो विकसित देशों पर कहर टूट पड़ेगा। इसलिये वे रियो दी जेनरो और क्योटो पृथ्वी सम्मेलनों में विकासशील देशों को यह संदेश दे चुके हैं कि वे ईधन चालित मशीनों के पहियों की गति धीमी करें नहीं तो दुनिया समुद्र में डूब जायेगी तथा अब कोपेनहेगन में भी वे यही दोहराना चाहते हैं जिसका अर्थ है पंजाब के खेतों में चल रहे ट्रैक्टर बंद हो जायें, राजस्थान की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद हो जायें, महाराष्ट्र के कपड़े और बिजली के कारखाने बंद हो जायें नहीं तो आगामी पचास सालों में धरती के कई बड़े शहर समुद्र के पेट में समा जायेंगे।
कोई हुसैन और अमरीकियों को भारतीय पुराण पढ़ाये !
प्लीस्टोसीन पीरियड जो कि आज से छ: लाख वर्ष पहले शुरु हुआ और आज से 10 हजार साल पहले तक चला, इसमें धरती पर कम से कम चार हिम युग आये। प्रत्येक दो कालों के बीच मंद या थोड़ा गर्म अंतर्हिम काल आया। इस प्रकार कुल तीन अंतर्हिम काल आये जिनमें आदमी ने बार-बार अपना स्थान बदला। जब अधिक सर्दी का दौर आता तो आदमी दक्षिणी प्रदेशों में चला जाता और जब अधिक गर्मी पड़ती तो वह उत्तारी प्रदेशों में आकर रहने लगता। हिम युग की सर्दी के कारण वनस्पति भी नष्ट हो जाती थी जिसके कारण पशु भी लगातार उन प्रदेशों के लिये पलायन करते रहते थे जहाँ गर्मी के कारण घास के मैदानों का विकास हो जाता था।
आदमी धरती पर आज से लगभग 20 लाख साल पहले आया किंतु हमारी प्रजाति का आदमी अर्थात् होमोसेपियन का उदय हिमयुगों की आवाजाही के बीच आज से लगभग 40 हजार से लेकर 30 हजार साल पहले के किसी काल में हुआ। यह चौथे हिम युग का अंतिम दौर था। आज से दस हजार साल पहले चौथा हिमयुग समाप्त हो गया और गर्म युग की शुरुआत हुई। इस गर्म युग में ही आदमी ने तेजी से अपना मानसिक विकास किया और उसने कृषि, पशुपालन तथा समाज को व्यवस्थित किया। भारतीय भूभाग में जलवायु परिवर्तन का इतिहास वैदिक एवं पौराणिक साहित्य में देखा जा सकता है। यदि बराक हुसैन ओबामा और उनके देश के वैज्ञानिक इन वेदों और पुराणों को पढ़ें तो उन्हें ज्ञात हो सकेगा कि धरती पर जलवायु परिवर्तन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी एक चौड़े महानद के रूप में प्रवाहित होती थी। वह स्थान-स्थान पर 'सर' अर्थात् झील बनाकर चलती थी। उन झीलों में से कुछ को कुरुक्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। इनमें से एक को महाभारत काल में ब्रह्म सरोवर कहा गया है जिसमें महाभारत के युध्द के बाद धृतराष्ट्र ने मृतक पुत्रों एवं पौत्रों का तर्पण किया। आज उन्हीं सरोवरों को कुण्ड कहा जाता है। ऋग्वैदिक काल में इसी सरस्वती की एक धारा राजस्थान में कालीबंगा तक बहकर आती थी और यह क्षेत्र सारस्वान कहलाता था। जब सरस्वती लुप्त हुई और कालीबंगा की सभ्यता नष्ट हुई उस समय मानव जनित कार्बन उत्सर्जन की मात्रा शून्य थी। यदि कार्बन उत्सर्जन में वृध्दि ही धु्रवों और ग्लेशियरों के पिघलने का कारण है तो फिर सरस्वती के ग्लेशियर कैसे नष्ट हुए! कालीबंगा क्यों उजड़ गया! कोई बराक हुसैन ओबामा और उनकी वैज्ञानिक टीम से इन सवालों के जवाब पूछे ताकि कोपेनहेगन में वह अपना विश्वव्यापी खेल खेलकर विकासशील देशों में प्रगति के पहिये पर ब्रेक लगाने की अपनी योजना को अंजाम न दे सकें। अपने पाठकों की जानकारी के लिये हम भारतीय पुराणों के वे संदर्भ अगली दो कड़ियों में लिखेंगे जिनमें जलवायु परिवर्तन का इतिहास लिखा हुआ है।
यमुना ने सरस्वती को निगला तब कार्बन उत्सर्जन कहाँ था !
पुराणों में वर्णित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि अगस्त्य और वसिष्ठ ऋषियों के समय तक अर्थात् 2350 ई. पूर्व तक सरस्वती की पुरानी धारा में कुछ जल बहता था जो विनाशन नामक स्थान तक आकर लुप्त होता था। सरस्वती की मुख्य धारा के यमुना में मिल जाने से सरस्वती के पुराने तटों पर बसी हुई मानव बस्तियां उजड़ गईं जिनमें कालीबंगा, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो आदि के नाम लिये जा सकते हैं। सरस्वती के तट पर बने ऋषियों के आश्रम उजड़ गये। अधिकांश ऋषि भयानक सूखे, अकाल और अनावृष्टि के कारण मर गये।
इस घटना के लगभग एक सौ साल बाद सप्त-ऋषियों के काल में सरस्वती का पुराना स्वर्णकाल लौटा पर वह सरस्वती तट तक सीमित नहीं था, उसका प्रभाव सारे उत्तारी भारत में था। यह स्थिति पाँच सौ साल तक चली। इसमें उत्तारी भारत के लोगों को शुध्द जल की आपूर्ति प्रचुर मात्रा में हुई। कालीबंगा जैसी पुरानी बस्तियों पर फिर से नई बस्तियां बस गईं। आज भी कालीबंगा की खुदाई में मानव बस्तियों के दो स्तर ठीक एक दूसरे के ऊपर मिलते हैं।
1800 ई. पूर्व के आसपास एक बार फिर उत्तारी भारत में नदियों ने अपना रूप बदला। सरस्वती फिर सूखने लगी। इस कारण उसके तटों पर खड़े जंगल सूख गये। इस काल का हमारे पुराणों में विशद वर्णन उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि सरस्वती के तट पर ऋषि भूखों मरने लगे तथा अधिकांश ऋषि सरस्वती का तट छोड़कर गंगा-यमुना के मध्य क्षेत्र में जा बसे। इस काल में पूरे उत्तारी भारत में भयानक अकाल पड़ा। इसी काल के एक उपनिषद में वर्णन आता है कि भूख से बिलबिलाते हुए एक ऋषि ने एक महावत से साबुत उड़द मांगकर खाये।
वामन पुराण में लिखा है कि ब्रह्मावर्त (आज का हरियाणा और उत्तारी राजस्थान) में सरस्वती के किनारे बड़ी संख्या में ऋषियों के आश्रम स्थित थे। अत्यंत दीर्घजीवी मार्कण्डेय ऋषि सरस्वती के उद्गम के पास रहते थे। जब प्रलय आया तो मार्कण्डेय ऋषि अपने स्थान से उठकर चल दिये। सरस्वती नदी उनके पीछे-पीछे चली। इसी कारण सरस्वती की ऊपरी धारा का नाम मारकण्डा पड़ गया। इस रूपक से आशय लगाया जा सकता है कि जब सरस्वती की मुख्य धारा सूखने लगी तो मार्कण्डेय ऋषि ने अपने पूर्व स्थान को त्याग दिया तथा सरस्वती की जिस धारा के तट पर जाकर वे रहे, वह धारा ऋषि के नाम पर मारकण्डा के नाम से जानी गई। हिमालय पर्वत पर 3207 फुट की ऊँचाई पर नाहन की चोटी है जिस पर स्थित मारकण्डा नदी का चौड़ा पाट बताता है कि किसी समय यह नदी एक विशाल नद के रूप में प्रवाहित होती थी तथा सरस्वती इसकी सहायक नदी थी। इस सरस्वती को प्राचीन सरस्वती की ही एक धारा समझना चाहिये। सरस्वती के इतने सारे मार्ग परिवर्तनों के समय कार्बन उत्सर्जन जैसी कोई चीज नहीं थी। फिर भी वह लुप्त हो गई।
क्या कार्बन उत्सर्जन ने श्रीकृष्ण की द्वारिका समुद्र में डुबो दी ?
काठक संहिता, तैत्तरीय संहिता, तैत्तरीय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि एक बार सारी पृथ्वी पर सर्वंतक अग्नि से भयंकर दाह हुआ। तदनन्तर एक वर्ष की अतिवृष्टि से महान् जन प्लावन आया। सारी पृथ्वी जल निमग्न हो गई। वृष्टि की समाप्ति पर जल के शनै:शनै: नीचे होने से कमलाकार पृथ्वी प्रकट होने लगी। इस समय उन जलों में श्री ब्रह्माजी ने योगज शरीर धारण किया। सृष्टि वृध्दि को प्राप्त हुई। तब बहुत काल के पश्चात् समुद्रों के जलों के ऊँचा हो जाने से एक दूसरा जलप्लावन वैवस्वत मनु और यम के समय आया।
इन दो महा जलप्लावनों के अतिरिक्त लघु जलप्लावन भी संसार में आते ही रहे हैं। ईसा से 1400 साल पहले आये एक ऐसे ही जलप्लावन में कृष्णजी की द्वारिका समुद्र में समा गई। विभीषणजी की लंका भी एक ऐसे ही जलप्लावन के कारण समुद्र में डूब गई थी। तमिल साहित्य में वर्णित दो जलप्लावनों में से एक जलप्लावन में दक्षिण में स्थित कपाटपुरम् तथा दूसरे जलप्लावन में पुरानी मदुरा जल में डूब गई थी। कश्मीर के नीलमत पुराण् में कश्मीर में आये प्रलय का विशद वर्णन है ।
स्पष्ट है कि इन सारे जलप्लावनों का कारण वायुमण्डल के तापमान में अत्यधिक वृध्दि होना रहा होगा किंतु तापमान में वृध्दि किसी मानवीय कारण से नहीं आई होगी। न जनसंख्या बढ़ने से, न जंगलों की कटाई से और न सीओटू या सीएफसी में वृध्दि से। ताण्डय महाब्राह्मण में सरस्वती के लुप्त होने का उल्लेख है जबकि जैमिनी ब्राह्मण में उसके लुप्त होकर पुन: प्रकट होने का उल्लेख है। ऐतरेय ब्राह्मण सरस्वती की स्थिति मरुप्रदेश से कुछ दूरी पर बताता है। एक पुराण में सरस्वती की स्थिति रेत में पड़ी उस नौका के समान बताई गई है जिसके तल में छेद हैं। माना जाता है कि सरस्वती धरती में घुस गई। कालीदास ने भी सरस्वती को अंत:सलिला कहकर सम्बोधित किया है।
भूकम्प भी समुद्री एवं भूगर्भीय जल स्तरों को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। लातूर के भूकम्प के दौरान महाराष्ट्र में कई स्थानों पर जल की धाराएं फूट पड़ी थीं। कुछ वर्ष पहले आया सुनामी भी समुद्री क्षेत्र में आया एक भूकम्प ही था। इसी प्रकार बाड़मेर क्षेत्र में विगत दो माह पूर्व आये भूकम्प के बाद वैज्ञानिकों ने चिंता जताई थी कि इससे इस क्षेत्र का तेल बहकर पाकिस्तान की ओर सरक सकता है। ये सारे उदाहरण गिनाने का उद्देश्य यह है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या केवल मानव जनित नहीं हैं, इसमें नैसर्गिक बदलावों की भारी भूमिका है। कहीं बड़े, धनी और ताकतवर देश जलवायु परिवर्तन को मनुष्य जनित संकट बताकर छोटे, विकासशील, अविकसित अथवा निर्धन देशों का गला घोंटने में सफल नहीं जायें।
कोपेनहेगन के अमृत और विष का बंटवारा किस आधार पर हो!
कोपेनहेगन पथ्वी सम्मेलन रूपी समुद्र-मंथन से निकले अमृत और विष का बंटावारा किस आधार पर हो! 7 से 18 दिसम्बर तक इसी बंटवारे का कोई सर्वमान्य फार्मूला निकालने की माथापच्ची चल रही है। विकसित कहे जाने वाले सम्पन्न देश यह चिंता तो जताते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में कमी होनी चाहिये किंतु वे इस कमी का बीड़ा स्वयं नहीं उठाना चाहते। वे चाहते हैं कि कार्बन उत्सर्जन से होने वाले विकास की वारुणि उन्हें सदैव निर्बाध रूप से प्राप्त होती रहे और कार्बन उत्सर्जन का विषपान विकासशील देशों के माथे मढ़ दिया जाये। विकसित देश चाहते हैं कि विकसित, विकासशील एवं अविकसित देशों में 20 से 25 प्रतिशत कार्बन ऊत्सर्जन कटौती की जाये। देखने में तो यह फार्मूला न्यायसंगत लगता है कि सब देशों में बराबर कार्बन कटौती हो किंतु इस फार्मूले में छिपी कड़वी सच्चाई कुछ और है। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि बैल, ऊँट, घोड़े और गधे आदि पशुओं की पीठ पर समान भार लाद दिया जाये और यह दावा किया जाये कि हमने सबके साथ बराबरी का व्यवहार किया है।
आज भारत में प्रति-व्यक्ति, प्रति-वर्ष ऊर्जा देने के लिये 510 किलोग्राम ऑयल के बराबर र्इंधन जलाया जाता है जबकि चीन में 1500 किलो, अमरीका में 7778 किलो और कनाडा में 8262 किलो ऑयल के बराबर र्इंधन जलाया जाता है। यदि इस ऊर्जा में से चौथाई हिस्से की कटौती कर दें तो भारत में प्रतिव्यक्ति, प्रतिवर्ष 382 किलो तेल जलाने जितनी ऊर्जा मिलेगी। जैसे-जैसे आबादी बढ़ती जायेगी, प्रतिव्यक्ति ऊर्जा की उपलब्धता कम होती जायेगी। जबकि चीन को भारत से तीन गुनी, अमरीका को पन्द्रह गुनी और कनाडा को सोलह गुनी ऊर्जा मिलती रहेगी।
कार्बन उत्सर्जन में पच्चीस प्रतिशत कटौती के फार्मूले को लागू करने के दस सालों बाद जब हम दुनिया का आर्थिक मानचित्र देखेंगे तब भारत की आबादी सवा गुनी हो चुकी होगी किंतु ऊर्जा की कमी के कारण देश में अनाज, पेयजल, दवायें, कपड़े और आवास की भयानक समस्या उत्पन्न हो चुकी होगी। भारत अत्यंत पिछड़ा, निर्धन और अशक्त देश दिखाई देगा जबकि चीन भारत से तीन गुनी ऊर्जा की खपत करके भारत में आने वाली सैंकड़ों नदियों को बांध बनाकर रोक लेगा। वह हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करके बड़े भू-भाग दाब लेगा और हमारी सामरिक क्षमताओं के मुकाबले में वह अत्यधिक ताकतवर हो जायेगा। अमरीका और कनाडा हमसे पंद्रह-सोलह गुनी ऊर्जा का उपयोग करके आज से भी अधिक विकसित, शक्तिशाली और सम्पन्न देशों का रूप ले चुके होंगे।
भारत चाहता है कि सन् 2012 तक समस्त घरों में बिजली पहुंचे। यदि कोपेनहेगन संधि के बाद भारत पर भी कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती लागू की गई तो सन् 2012 तो क्या, आने वाली कई सदियों तक भारत के करोड़ों लोग बिजली का प्रकाश नहीं देख सकेंगे। इसलिये कोपेनहेगन में कार्बन कटौती का फार्मूला तय करने का आधार केवल यह होना चाहिये कि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिवर्ष उपभोग के लिये कितनी ऊर्जा उपलब्ध रहे। इसके अतिरिक्त कोई भी फार्मूला दुनिया के देशों के साथ न्याय नहीं कर सकेगा।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता
63, सरदार क्लब योजना,
वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर
मोबाइल (0) 94133 59015