दुनिया भर के देशों ने आज से 20 साल पहले रियो दी जेनरो में तथा 10 साल पहले क्योटो में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किये थे जिनमें संसार के लगभग सभी देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये सर्वमान्य संधियां की थीं। क्योटो संधि 2012 में समाप्त हो रही है। इसलिये आज से 18 दिसम्बर तक कोपेनहेगन में फिर से पृथ्वी सम्मेलन आयोजित हो रहा है जिसमें दुनिया के देशों द्वारा एक नई संधि की जायेगी जिसके तहत सभी देशों को आगामी दस सालों में कार्बन उत्सर्जन में एक निश्चित कमी लाने का संकल्प व्यक्त करना है। यह आयोजन ठीक वैसा ही प्रतीत होता है जैसा कि भारतीय पुराणों में मायावी असुरों एवं सरल-चित्ता सुरों द्वारा किये गये समुद्र मंथन का वर्णन मिलता है। कोपेनहेगन मंथन में अमरीका और यूरोप के विकसित देश मायावी असुरों की भूमिका में हैं तथा भारत एवं उसके जैसे विकासशील देश देवताओं की भूमिका में हैं। मायावी असुर अपनी ताकत पर कूद रहे हैं जबकि देवताओं को शरणागत वत्सल विष्णु और विषपायी शिव-शम्भू का भरोसा है।
मायावी असुरों और सरल-चित्त सुरों के मध्य समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्ति के लिये किया गया था किंतु दोनों ही पक्ष इस बात से अनजान थे कि अमृत के साथ-साथ इसमें से देवी लक्ष्मी, धनवन्तरि, चंद्रमा, कौस्तुभ, उच्चैश्रवा:, कामधेनु एवं ऐरावत जैसी सम्पदायें और विष एवं वारुणि जैसी विपदायें भी निकलेंगी और इन्हें कौन लेगा! जबकि कोपेनहेगन में में तो झगड़ा ही इस बात पर होना है कि ईंधन चालित मशीनों से निकलने वाले कार्बन उत्सर्जन रूपी विष को कौन पियेगा! धनी देश चाहते हैं कि उनके द्वारा निकाले गये विष को विकासशील देश पी लें।
जब ईंधन से चलने वाली मशीनें काम करती हैं तो विकास का पहिया आगे बढ़ता है तथा अपने पीछे कार्बन डॉई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन जैसे विषैले उत्सर्जन छोड़ जाता है। इन गैसों से धरती का वातावरण गरम होता है जिससे ग्लेशियरों और ध्रुवों की बर्फ पिघलती है तथा समुद्रों का जलस्तर बढ़ता है। परिणामत: किनारों पर बसे देश पानी में डूब जाते हैं। पिछले दिनों मालदीव अपने मंत्रिमण्डल की बैठक समुद्र में करके तथा नेपाल अपने देश की बैठक एवरेस्ट के बेस कैम्प में करके संसार को इस बात की चेतावनी दे चुके हैं कि यदि धरती का तापक्रम इसी तरह बढ़ता रहा तो आने वाला भविष्य कैसा होगा!
इतिहास गवाह है कि जब से मनुष्य ने ईंधन चालित मशीनों का निर्माण किया है, तब से यूरोप और अमरीका ने सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन किया है। यही कारण है कि आज यूरोप और अमरीका जगमगाती बिजलियों, सरपट दौड़ती सड़कों, लम्बे पुलों और ऊँची भव्य मीनारों से सजे हुए हैं। इसके विपरीत पिछड़े हुए अर्थात् विकासशील देशों में टूटी फूटी सड़कों, अंधकार में बिलखते शहरों और गरीबी में सिसकते गांवों की उपस्थिति केवल इसलिये है क्योंकि वे र्इंधन चालित मशीनों का उपयोग प्रभूत मात्रा में नहीं कर पाये।
आज विकसित देश अपनी समृध्दि के चरम पर हैं। उन्हें लगता है कि यदि विकासशील देशों ने उनकी बराबरी की तो विकसित देशों पर कहर टूट पड़ेगा। इसलिये वे रियो दी जेनरो और क्योटो पृथ्वी सम्मेलनों में विकासशील देशों को यह संदेश दे चुके हैं कि वे ईधन चालित मशीनों के पहियों की गति धीमी करें नहीं तो दुनिया समुद्र में डूब जायेगी तथा अब कोपेनहेगन में भी वे यही दोहराना चाहते हैं जिसका अर्थ है पंजाब के खेतों में चल रहे ट्रैक्टर बंद हो जायें, राजस्थान की सीमेंट फैक्ट्रियां बंद हो जायें, महाराष्ट्र के कपड़े और बिजली के कारखाने बंद हो जायें नहीं तो आगामी पचास सालों में धरती के कई बड़े शहर समुद्र के पेट में समा जायेंगे।
Sunday, December 13, 2009
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हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई। मेरे ब्लोग पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteSab apna danka bajana chahte hain...dharti jaye bhadme!
ReplyDeleteSuljha hua aalekh hai!
Sab kuchh hasyaspad lagta hai...
ReplyDeleteblogjagat me aapka swagat hai!
bahut sundar
ReplyDeletenarayan narayan
ReplyDeleteइसी बजह से कौपनहेगन का कोई निष्कर्ष नहीं निकला क्योंकि ऐसे काम नहीं चलता कि आप विकासशील देशों को विकास से रोक कर पृथ्वी बचाने की बात कहें, और अपने देश में कोई कटौती न करें
ReplyDeleteधन्यवाद् रचनाजी, मनोजजी, क्षमाजी, शमाजी, प्रदीपजी, नारदजी, शशांकजी! आज कैलिफोर्निया hydrogen fuel से जगमगा रहा है. यदि अमरीका वाकई में कार्बन समस्या की आड़ में अपना बाजार चमकाने का खेल नहीं खेल रहा तो उसे hydrogen fuel तकनीक पूरी दुनिया को फ्री दे देनी चाहिए. - मोहनलाल गुप्ता
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